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इतिहास

श्री ईश्वर चंद्र विद्यासागर

ईश्वरचंद्र का चित्र

झारखंड राज्य के लिए यह सौभाग्य की बात है कि बांग्ला लिपि और बांग्ला भाषा के पितामह कहे जाने वाले ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत करने के लिए कर्माटांड का चयन किया है। उन्होंने करमाटांड जो कि अब जामताड़ा जिला में स्थित है अपने निवास स्थान का नाम ‘नंदन कानन’, रखा था|.
करमाटांड में वे केवल संथालों के साथ रहे ही नहीं बल्कि उन्होंने उनके सामाजिक उत्थान के लिए भी काफी प्रयास किया| उन्होंने संथाल लड़कियों के लिए सबसे पहला औपचारिक विद्यालय प्रारम्भ किया जो शायद हमारे देश का संभवत: पहला औपचारिक बालिका विद्यालय था। उन्होंने इन आदिवासी लोगों के लिए चिकित्सा प्रदान करने के लिए एक नि: शुल्क होम्योपैथी क्लिनिक खोला। उन्होंने जनजातीय आबादी के वयस्कों को भी शिक्षित करने की कोशिश की। उन्हें जनजातीय समाज द्वारा भगवान की तरह पूजा जाता था। .
विद्यासागर एक जाने-माने लेखक, बुद्धिजीवी और मानवता के एक कट्टर अनुयायी थे। उन्होंने बंगाल की शिक्षा प्रणाली में एक क्रांति लाई। विद्यासागर ने बांग्ला भाषा परिष्कृत किया और इसे समाज के आम तबके के लिए सुलभ बनाया। लगभग सभी विषयों में अपने विशाल ज्ञान के कारण उन्हें ‘विद्यासागर’ (ज्ञान के सागर) की उपाधि डी गयी थी| कवि माइकल मधुसूदन दत्त, ईश्वर चंद्र के बारे में लिखते हुए कहा: “प्रतिभा और ज्ञान एक प्राचीन ऋषि का, एक अंग्रेज की ऊर्जा और एक बंगाली मां का दिल”

 

जीवन और शिक्षा

 

ईश्वर चंद्र बंदोपाध्याय का जन्म सोमवार 26 सितंबर 1820 (आश्विन १२ बांग्ला वर्ष 1227) को वीरसिंघा गांव जो तत्कालीन हूगली (वर्तमान में मिदनापुर जिला, पश्चिम बंगाल) में हुआ था| विद्यासागर ने बेहद गरीबी में अपने बचपन बिताया। लेकिन गरीबी ने उनकी आत्मा को नहीं छू सकी, और न ही यह उनके जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने से उनको रोक सकी| उनके पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय और मां भगवती देवी बहुत धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। ईश्वर चंद्र एक मेधावी छात्र थे। ज्ञान के प्रति उनकी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी कि वे स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे क्योंकि उनके पास घर में जलाने के लिए गैस लंप के पैसे नहीं थे।.

साल 1839 में, ईश्वर चंद्र विद्यासागर क़ानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल रहे। 1841 में, इक्कीस साल की उम्र में, ईश्वर चंद्र फोर्ट विलियम कॉलेज के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में सेवा प्रारम्भ किया।

सुधार

ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह की अवधारणा शुरू की और बाल-विवाह और बहुविवाह प्रथा के उन्मूलन का मुद्दा उठाया। उन्होंने निम्न जाति के छात्रों के लिए कॉलेजों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों के दरवाजे खोले जो पहले केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित किये गए थे| अपनी विशाल उदारता और सहृदयता के कारण लोग उन्हें “दयासागर” (दया के सागर) के रूप में संबोधित करने लगे।.
आज शायद ही ऐसा कोई बांग्ला मानुष होगा जिसने विद्यासागर के बारे में सुना नहीं होगा या जिसने अपनी शिक्षा का प्रारम्भ वर्णमाला की अपनी पहली पुस्तक “वर्ण परिचय” (भाग १ एवं २) से न की हो जिसका प्रकाशन उन्होंने सर्वप्रथम 1855 में किया था| उनके अति उत्कृष्ट कार्य जैसे- उन्होंने बांग्ला गद्य की आधारशिला रखी और अगणित संस्कृत कृतियों का बांग्ला में अनुवाद किया- ज्ञान की खोज में मानवीय प्रयासों के लिए एक समारक के रूप में सदैव स्थापित रहेगा और ज्ञान का प्रसार करता रहेगा। टैगोर ने उन्हें ‘आधुनिक बांग्ला गद्य का पिता’ कहा है|
विधवाओं के प्रति अपनी दयालुता का प्रमाण उन्होंने स्वयं अपने बेटे का विवाह एक विधवा से करा कर दिया। आखिरकार 26 जुलाई 1856 को ‘विधवा विवाह’ सरकार द्वारा वैध कर दिया गया।
वे अपना जीवन एक साधारण व्यक्ति के रूप में जीते थे लेकिन लेकिन दान पुण्य के अपने काम को एक राजा की तरह करते थे| वे घर में बुने हुए साधारण सूती के वस्त्र धारण करते थे जो कि उनकी माता जी बुनती थीं जब तक वे जीवित थीं|। विद्यासागर झाडियों के वन में एक विशाल वट वृक्ष के सामान थे। क्षुद्र व स्वार्थी व्यवहार से तंग आकर उन्होंने अपने परिवार के साथ संबंध विच्छेद कर दिया और अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष आदिवासी जनता के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

मृत्यु

ईश्वर चंद्र विद्यासागर का 70 वर्ष की उम्र के 29 जुलाई 1891 को निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा, “लोग आश्चर्य करते हैं, कैसे ईश्वर ने, चालीस लाख बंगालियों में, एक मनुष्य को पैदा किया!”
उनकी मृत्यु के बाद, विद्यासागर के निवास “नंदन कानन” को उनके बेटे ने कोलकाता के मलिक परिवार बेच दिया| इससे पहले कि “नंदन कानन” को ध्वस्त कर दिया जाता बंगाली एसोसिएशन, बिहार ने घर घर से एक एक रूपया अनुदान एकत्रित कर 29 मार्च 1974 को खरीद लिया। बालिका विद्यालय पुनः प्रारंभ किया गया जिसका नामकरण विद्यासागर के नाम पर किया गया है। निःशुल्क होम्योपैथिक क्लिनिक स्थानीय जनता की सेवा कर रहा है। विद्यासागर के निवास स्थान के मूल रूप को आज भी व्यवस्थित रखा गया है| रखा गया है। सबसे बेशकीमती संपत्ति 141 साल पुराने ‘पालकी’ है जिसे खुद विद्यासागर द्वारा प्रयोग किया जाता था|